सोमवार, 29 नवंबर 2010

आग...

तम की शीतलता भी बुझा नहीं पाई...

मेरे अन्दर धधक रही जो आग...
 

तम की स्निग्धता भी शांत नहीं कर पाई..
 

मेरे अन्दर मचा हुआ कोहराम ...
 

क्रोध के दावानल को कब तक बांध कर रखूं...
 

मन की प्राचीरें है पिघल रही...
 

अब सूरज को मुट्ठी में बांध ले चलूँ.....
 

और खोलूं मुट्ठी वहां जहाँ है अँधेरा .....
 

नहीं जला सकती इसकी तपिश मुझे ...
 

ये मेरे अन्दर धधक रही आग से ज्यादा तेज नहीं....! ! !

9 टिप्‍पणियां:

  1. मनोज जी.....बहुत ही ऊर्जा व् जोश के साथ लिखी गयी रचना है....हर इन्सान के भीतर एक आग होती है जो धधकती रहती है....
    किन्तु वे विरले ही होते हैं जो सूरज को मुट्ठी में बाँध तम तक
    ले जाना चाहें........बहुत उम्दा.

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  2. क्रोध का दावानल
    सच के दावानल से ज्यादा घातक होता है //
    उम्दा रचना // मनोज भाई

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  3. manoj bai rachna sunder hai..mitervar kucch shabad jo aapney rachna mei prastut kiye hain voh thore kathin bee hain....tum..singinta..davanal agar ho sake to kucch inka vayakhan kar diya jana jaroori hai kahin bee kone mei jissey read karne mei aur bee annand ki anubhuti ho sake..... danayvaad sahit aapka abhari ravi razdan,jammu..09419126001

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  4. मनोज जी ,
    आपका ब्लोग घूम-फ़िर कर देखा !
    बहुत अछा लगा !
    सुंदर साज़-सज़्ज़ा !
    अच्छी सामग्री !
    शानदार और जानदार !
    बधाई !
    ============================
    आपकी इस कविता का यह अंश भी अछा लगा-
    बधाई !

    "अब सूरज को मुट्ठी में बांध ले चलूँ.....
    और खोलूं मुट्ठी वहां जहाँ है अँधेरा .....
    नहीं जला सकती इसकी तपिश मुझे ...
    ये मेरे अन्दर धधक रही आग से ज्यादा तेज नहीं....! ! !

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