सोमवार, 29 नवंबर 2010

आग...

तम की शीतलता भी बुझा नहीं पाई...

मेरे अन्दर धधक रही जो आग...
 

तम की स्निग्धता भी शांत नहीं कर पाई..
 

मेरे अन्दर मचा हुआ कोहराम ...
 

क्रोध के दावानल को कब तक बांध कर रखूं...
 

मन की प्राचीरें है पिघल रही...
 

अब सूरज को मुट्ठी में बांध ले चलूँ.....
 

और खोलूं मुट्ठी वहां जहाँ है अँधेरा .....
 

नहीं जला सकती इसकी तपिश मुझे ...
 

ये मेरे अन्दर धधक रही आग से ज्यादा तेज नहीं....! ! !

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

यही है अब प्रण...

वन्दे मातरम....

शासक निर्लज्ज...

अब रोके न रुकेगा...

झुका है न झुकेगा...

उग आया केसरी सूरज......

केसरी है रग......

केसरी है ध्वज......


केसर की क्यारी क्यो दें हम तज...

केसरी है मन ...

केसरी है तन...

केसरी ही प्राण मेरा...

केसरी है प्रण...

हिन्दू है तन...

हिन्दू है मन...

चाहे कितना अब भीषण हो रण...

हिन्दू मन का यही है अब प्रण...

चाहे कितना अब भीषण हो रण...

हिन्दू मन का यही है अब प्रण...

बुधवार, 10 नवंबर 2010

रंग बदलता इन्सां !!

चटक आसमान !
कड़क धूप !
सौन्धी मिट्टी की महक !
चिड़िया की चह्चहाट !
कहीं रहट की चररर चररर !
कहीं बैलगाड़ी की चडचु चडचु !
कहीं उड़ती हुई तितली !
कहीं दूर से कोई देता हूलारे !
तो किसी खेत की मुंडेर पर रंग बदलता गिरगिट !
अब कहाँ दिखता इस कंक्रीट के जंगल में?
दिखता है -
तो बस रंग बदलता इन्सां !!
कुछ कतरा धूप !!
थोड़ी पेड़ की छाँव !!
थोड़ी सी ज़मीन !!
थोड़ा सा जमीर !!
थोड़ी सी इंसानियत !!
थोडा सा आस्मां !!
और 
रंग बदलता इन्सां !! 
रंग बदलता इन्सां !! 

सोमवार, 8 नवंबर 2010

एक सपना

एक सपना आँखों के सामने ...

रक्त रंजित वसुंधरा...

मारो काटो...मत छोडो...

की गूंज अनुगूँज का कोलाहल ...

खच की आवाज़ आई...

रक्त छींटो की एक लकीर खिंच गयी चेहरे पर...

यकायक आँख खुली...

उदास थी सुबह...

कोई हलचल नहीं...

सोने की फिर कोशिश में ...

नजर पड़ी रोशनदान पर

जहाँ धूप की किरणों में अंधेरा था...

चिड़िया चुप थी...

चिड़ा जमीं पर बैठा मातम मना रहा था...

अपने बिखरे घोंसले का...

टूटे अण्डों का...

कुचले हुए बच्चे का...

अपने बिगड़े भविष्य का..

कुछ अधबुने सपनो का...

मैं उठ बैठा ...

अब शायद ना सो पाऊं...

रक्त छींटों के साथ तो कभी नहीं...