बुधवार, 1 दिसंबर 2010

मोक्ष की भिक्षा...

ए ऊपर वाले तेरा भी खेल निराला...
बनवाये तुने मस्जिद गिरजा तो कहीं शिवाला....
तुझे पाने भटक रहा हर जगह आदम है...
और तू , नाजाने कहाँ छिपा बैठा है....?
लड़ रहा आदम तुझे खुश करने को...
क्या वो मरता है तभी तू खुश होता है...?
अगर ऐसा है , तो ला जलजला...! !
आ जाये आज ही क़यामत....! !
खोल शिव नेत्र तीसरा...! !
और देखे हम भी प्रलयंकर का प्रलय...
नहीं चाहिए अब और जीवन अभय...
गर मैं गलत हूँ तो मिटा दे भेद सभी...
और लेना है अवतार कल्कि , तो ले अभी...
पीड़ित मानवता कब तक करेगी प्रतीक्षा...
कब तक इत उत लेती रहेगी दीक्षा...
जीने के लिए तेरे नाम पर बहुत मांगी है
भिक्षा ! !
आज तू ही दे मोक्ष की भिक्षा...
आज तू ही दे मोक्ष की भिक्षा...

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक मन से निकली विनती - बहुत खूब मनोज जी

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  2. बेजोड़ है भाई
    बड़ा ही एक सवाल भी उठ खड़ा हुआ है
    क्या मौत ही मोक्ष है //

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  3. मौत मोक्ष कब से हो गयी.......?
    मोष की तो परिभाषा ही पृथक है.......
    कविता के स्तर पर बहुत सुन्दर रचना है मनोज भईया....

    समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी आयें.....
    (मेरी लेखनी..मेरे विचार..)

    .

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