तम की स्निग्धता भी शांत नहीं कर पाई..
मेरे अन्दर मचा हुआ कोहराम ...
क्रोध के दावानल को कब तक बांध कर रखूं...
मन की प्राचीरें है पिघल रही...
अब सूरज को मुट्ठी में बांध ले चलूँ.....
और खोलूं मुट्ठी वहां जहाँ है अँधेरा .....
नहीं जला सकती इसकी तपिश मुझे ...
ये मेरे अन्दर धधक रही आग से ज्यादा तेज नहीं....! ! !